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उ॒त त्व॒: पश्य॒न्न द॑दर्श॒ वाच॑मु॒त त्व॑: शृ॒ण्वन्न शृ॑णोत्येनाम् । उ॒तो त्व॑स्मै त॒न्वं१॒॑ वि स॑स्रे जा॒येव॒ पत्य॑ उश॒ती सु॒वासा॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

uta tvaḥ paśyan na dadarśa vācam uta tvaḥ śṛṇvan na śṛṇoty enām | uto tvasmai tanvaṁ vi sasre jāyeva patya uśatī suvāsāḥ ||

पद पाठ

उ॒त । त्वः॒ । पश्य॑न् । न । द॒द॒र्श॒ । वाच॑म् । उ॒त । त्वः॒ । शृ॒ण्वन् । न । शृ॒णो॒ति॒ । ए॒ना॒म् । उ॒तो इति॑ । त्व॒स्मै॒ । त॒न्व॑म् । वि । स॒स्रे॒ । जा॒याऽइ॑व । पत्ये॑ । उ॒श॒ती । सु॒ऽवासाः॑ ॥ १०.७१.४

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:71» मन्त्र:4 | अष्टक:8» अध्याय:2» वर्ग:23» मन्त्र:4 | मण्डल:10» अनुवाक:6» मन्त्र:4


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (उत त्वः) तथा कोई एक (वाचं पश्यन्) लिपिरूप वाणी को आँख से देखता हुआ (न पश्यति) नहीं देखता है लिपि का ज्ञान न होने से (उत त्वः) तथा कोई एक (एनां शृण्वन्) इस शब्दरूप वाणी को सुनाता हुआ (न शृणोति) नहीं सुनता है, अर्थज्ञान न होने से (उत-उ-त्वस्मै) और किसी एक के लिए (तन्वं विसस्रे) अपने आत्मा को खोल देती है-प्रकट करती है, ज्ञान के कारण से (पत्ये जाया-इव) पति के लिये पत्नी जैसे (उशती सुवासाः) अच्छे वस्त्र धारण किये हुए गृहस्थ धर्म की कामना करती हुई अपने शरीर को खोल देती है, प्रकट करती है ॥४॥
भावार्थभाषाः - वाणी को लिपिरूप में देखता हुआ भी लिपिज्ञानरहित नहीं देखता है और कोई अर्थज्ञानशून्य कानों से वाणी को सुनता हुआ नहीं सुन पाता, किन्तु ज्ञानवान् मनुष्य के लिए वाणी अपने सार्थ स्वरूप को ऐसे खोल कर रखती है, जैसे सुभूषित स्त्री अपने को खोलकर रख देती है गृहस्थसुख के लिए ॥४॥
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (उत त्वः-वाचं पश्यन्-न ददर्श) अपि चैको वाचं लिपिरूपां दृष्ट्या पश्यन् न पश्यति लिपेर्ज्ञानाभावात् “त्वः-एकः” [निरु० १।२०] (उत त्वः-एनां शृण्वन् न शृणोति) अपि चैकः शब्दरूपामेनां वाचं श्रोत्रेण शृण्वन् न शृणोति शब्दानां बोधाभावात् (उतो त्वस्मै तन्वं विसस्रे) अप्येकस्मै स्वात्मानम् “आत्मा वै तनुः” [श० ६।७।२।६] विवृणुते-उद्घाटयति ज्ञानकारणात् (पत्ये जाया-इव-उशती सुवासाः) पत्ये या जाया कल्याणवस्त्रा कामयमाना-गार्हस्थ्य-धर्मस्यावसरे स्वशरीरं विवृणुते-उद्घाटयति। तद्वदित्यर्थः ॥४॥